क्या बिगाड़ लेगे यहाँ नेताओं का आप ।
एक से बढ़कर एक है यहाँ अंगूठा छाप ॥
रिश्ते रिसते जा रहे मूक हुआ संबंध ।
राखी की कीमत घटी चटक गया अनुबंध ॥
बरगद बूढा हो गया ठूंठ। हुआ अशोक ।
सिर से साया जा रही रोक सके तो रोक ॥
यह सुन कबीरा रो दिया बहुत हुआ संताप ।
बेटी फिर मारी गई कातिल निकला बाप ॥
यह कैसा साहित्य है कैसा यह परिहास ।
कौमिक गिरी कर रहें कवि का पहन लिबास ॥
अंजुरी भर प्यार दो
शब्दसेतु में रचनाधर्मिता से जुड़े सभी लोगों का हार्दिक स्वागत है. शब्दसेतु एक ऐसा मंच है जहाँ आप अपनी रचनाओं को प्रकाशित कर सकते हैं. यदि आपकी रचनाएँ स्तरीय हैं तो आपको अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ हेतु आमंत्रित किया जा सकता है तथा आपकी रचनाओं को प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित भी किया जा सकता है
Shabd-setu
श्री जय प्रकाश त्रिपाठी

Thursday, May 29, 2008
Monday, May 26, 2008
जयप्रकाश त्रिपाठी
जयप्रकाश त्रिपाठी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद (ग्राम - नेवास ) में हुआ । बचपन से ही साहित्य में गहरी रूचि रखने वाले श्री त्रिपाठी अपने स्कूल और काँलेज के समय ही अपनी वाक् क्षमता व साहित्यिक प्रतिभा का परिचय देने में सफल रहे । विज्ञान एवं अभियांत्रिकी का छात्र होने के बावजूद उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है । ओजस्वी व मधु सिक्त बाणी के धनी श्री त्रिपाठी की आवाज में वह खनक है जो श्रोताओ
को को सहज ही सम्मोहित कर देती है । गत १५ वर्षों से हिन्दी कवि सम्मेलनों / संगोष्ठियों का संचालन करने वाले कवि जयप्रकाश त्रिपाठी की गणना आज देश के चुनिंदा एवं लोकप्रिय मंच संचालकों में होती है । कई सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं इनके इस हुनर को सम्मानित और प्रोत्साहित कर चुकी हैं । राजभाषा हिन्दी के प्रचार - प्रसार में उत्कृष्ट योगदान देने हेतु परमाणु ऊर्जा विभाग भारत सरकार ने इन्हें वर्ष २००५-०६ में राजभाषा भूषण सम्मान से अलंकृत किया है । काव्य संस्कारों से दीक्षित इस रचनाकार को आप भी अपने कार्यक्रमों में आजमा सकते है ।
श्री त्रिपाठी की व्यंग रचना की एक झलक -
पता नहीं क्यों अपने मुलुक का आदमी ,
माइक पकड़ते ही अपनी औकात भूला जाता है
गुनाहों का देवता भी मंच से नैतिकता का परचम लहराता है
बड़ा अजीब सा लगता है -
जब हाथों में आरी लेकर चलने वाला आदमी
पर्यावरण के उपलक्ष में बसंत के गीत गुनगुनाता है
पता नहीं क्यों .......
को को सहज ही सम्मोहित कर देती है । गत १५ वर्षों से हिन्दी कवि सम्मेलनों / संगोष्ठियों का संचालन करने वाले कवि जयप्रकाश त्रिपाठी की गणना आज देश के चुनिंदा एवं लोकप्रिय मंच संचालकों में होती है । कई सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं इनके इस हुनर को सम्मानित और प्रोत्साहित कर चुकी हैं । राजभाषा हिन्दी के प्रचार - प्रसार में उत्कृष्ट योगदान देने हेतु परमाणु ऊर्जा विभाग भारत सरकार ने इन्हें वर्ष २००५-०६ में राजभाषा भूषण सम्मान से अलंकृत किया है । काव्य संस्कारों से दीक्षित इस रचनाकार को आप भी अपने कार्यक्रमों में आजमा सकते है ।
श्री त्रिपाठी की व्यंग रचना की एक झलक -
पता नहीं क्यों अपने मुलुक का आदमी ,
माइक पकड़ते ही अपनी औकात भूला जाता है
गुनाहों का देवता भी मंच से नैतिकता का परचम लहराता है
बड़ा अजीब सा लगता है -
जब हाथों में आरी लेकर चलने वाला आदमी
पर्यावरण के उपलक्ष में बसंत के गीत गुनगुनाता है
पता नहीं क्यों .......
Friday, May 23, 2008
शब्द सेतु
उत्कृष्ट एवं स्वस्थ मनोरंजन से सराबोर साहित्यिक मंच
शब्द सेतु स्तरीय एवं स्वस्थ मनोरंजन से सराबोर कवि सम्मेलन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है । इन आयोजनों का प्रयोजन मात्र व्यावसायिक नहीं बल्कि साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चेतना के स्वर को मुखरित करना है तथा वरिष्ठ एवं लोकप्रिय रचनाकारों के साथ - साथ नए एवं प्रतिभाशाली रचनाकारों को मंच प्रदान करना है ।
Wednesday, May 21, 2008
Sunday, May 18, 2008
अपने बारे में
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जनपद में १९६३ में मकर संक्राति के दिन हुआ । स्कूल एवं कालेज की पढ़ाई पूरी होते ही माँ-बाप ने शादी की रस्म भी पूरीकर दी और शादी होने के बाद मैं अपने गाँव की सोंधी गंध समेटे मुम्बई आगयी । पिता जी को संगीत एवं अवधी में गीत लिखने का शौक था और उनका यह गुण मेरे अंदर रूपांतरित हो गया । संयोग से पति जोकि पेशे से वैज्ञानिक है , पहले से लेखन के क्षेत्र में प्रयासरत थे । आज उनकी गणना लोकप्रिय कवि एवं श्रेष्ठ मंच संचालक के रूप होती है । कुल मिलकर मुझे सृजन के लिए एक उपयुक्त व उर्बर परिवेश मिला । मेरे अंतस में विद्यमान संवेदना एवं अनुभूतियों की भावोर्मियाँ तरंगित होने लगी । ९० के दशक में पहली बार एक गीत लिखी -
सुधियों के धागे में स्वजनों की मोती नेह की सलाई में हर दिन पिरोती
इस रचना से मिला प्रतिसाद मेरी लेखनी के लिए अमृत तुल्य साबित हुआ । तबसे अनवरत लिखने का कार्य जारी है । मेरे काव्य गुरु प्रोफेसर नन्दलाल पाठक का यह गुरु मंत्र की हर दिन कुछ पढों, कुछ लिखों और कुछ गुनोंतुम्हारेअंदर साहित्य की आभा है एक दिन निश्चित प्रदीप्त होगी ।
सुधियों के धागे में स्वजनों की मोती नेह की सलाई में हर दिन पिरोती
इस रचना से मिला प्रतिसाद मेरी लेखनी के लिए अमृत तुल्य साबित हुआ । तबसे अनवरत लिखने का कार्य जारी है । मेरे काव्य गुरु प्रोफेसर नन्दलाल पाठक का यह गुरु मंत्र की हर दिन कुछ पढों, कुछ लिखों और कुछ गुनोंतुम्हारेअंदर साहित्य की आभा है एक दिन निश्चित प्रदीप्त होगी ।
Saturday, May 17, 2008
अंजुरी भर प्यार दो
आस्मान जितना नहीं बस अंजुरी भर प्यार दो
उम्र की देहलीज पर तुम फिर वही अभिसार दो
तुम कहो तो आज फिर आंखों में अंजन आंज लूँ
रात रानी से वही शर्मीली कलियाँ मांग लूँ
एक चुटकी मांग भर फिर रूप को शृंगार दो
आस्मान जितना नहीं बस अंजुरी भर प्यार दो ॥
उम्र की देहलीज पर तुम फिर वही अभिसार दो
तुम कहो तो आज फिर आंखों में अंजन आंज लूँ
रात रानी से वही शर्मीली कलियाँ मांग लूँ
एक चुटकी मांग भर फिर रूप को शृंगार दो
आस्मान जितना नहीं बस अंजुरी भर प्यार दो ॥
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