क्या बिगाड़ लेगे यहाँ नेताओं का आप ।
एक से बढ़कर एक है यहाँ अंगूठा छाप ॥
रिश्ते रिसते जा रहे मूक हुआ संबंध ।
राखी की कीमत घटी चटक गया अनुबंध ॥
बरगद बूढा हो गया ठूंठ। हुआ अशोक ।
सिर से साया जा रही रोक सके तो रोक ॥
यह सुन कबीरा रो दिया बहुत हुआ संताप ।
बेटी फिर मारी गई कातिल निकला बाप ॥
यह कैसा साहित्य है कैसा यह परिहास ।
कौमिक गिरी कर रहें कवि का पहन लिबास ॥
अंजुरी भर प्यार दो
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श्री जय प्रकाश त्रिपाठी
Thursday, May 29, 2008
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